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राजा अंबरीष और एकादशी व्रत

राजा अंबरीष और एकादशी व्रत: भक्ति, श्रद्धा और भगवान की करुणा की अद्भुत गाथा

सनातन धर्म की परंपरा में एकादशी व्रत का विशेष महत्व है। यह व्रत केवल शरीर की तपस्या नहीं, बल्कि आत्मा की शुद्धि और भगवान की भक्ति का प्रतीक है। इस व्रत को करने वालों में राजा अंबरीष का नाम बड़े आदर और श्रद्धा से लिया जाता है। उनकी निष्ठा और भक्ति की कहानी केवल एक धार्मिक कथा नहीं, बल्कि ईश्वर और भक्त के अटूट संबंध का सजीव प्रमाण है।


भगवान की करुणा को न समझ पाना ही जीव की सबसे बड़ी भूल

भक्त के हित के लिए भगवान हर सीमा पार कर सकते हैं, परंतु मानव अक्सर उनकी करुणा और कृपा को समझ नहीं पाता। इसी असमझ में वह भटकता है। पर जो भगवान पर पूर्ण विश्वास करता है, वही उनकी शरण का वास्तविक अधिकारी होता है। राजा अंबरीष इस विश्वास का प्रतीक बनते हैं।


एकादशी व्रत और ऋषि दुर्वासा का आगमन

राजा अंबरीष हर एकादशी को संपूर्ण श्रद्धा और विधि-विधान से व्रत करते थे। एक बार, एकादशी के दिन, जब व्रत का पारायण काल निकट था, उसी समय ऋषि दुर्वासा पधारे। उन्होंने राजा से कहा कि वे उनके यहाँ भोजन करेंगे। राजा ने सहर्ष स्वीकार किया और भोजन की तैयारी आरंभ हो गई।

परंतु ऋषि स्नान हेतु गए और विलंब हो गया। इधर पारायण की अवधि समाप्त होने को थी। अगर व्रत का समापन समय पर न हो, तो उसका संकल्प भंग हो जाता है। अब राजा धर्म-संकट में पड़ गए—अतिथि धर्म और व्रत धर्म में किसे चुनें?


तुलसी दल से व्रत का समापन

ब्राह्मणों से परामर्श के बाद राजा ने भगवान को भोग अर्पित कर केवल एक तुलसी दल ग्रहण कर व्रत का पारायण किया—भोजन उन्होंने ऋषि के साथ ही करने का संकल्प रखा।


ऋषि दुर्वासा का क्रोध और भगवान की रक्षा

ऋषि दुर्वासा जब लौटे और राजा को व्रत समाप्त करते देखा तो अत्यंत क्रोधित हुए। उन्होंने इसे अतिथि का अपमान समझा। क्रोध में उन्होंने अपनी जटा से कृत्या राक्षसी उत्पन्न की और उसे राजा को मारने का आदेश दे दिया।

कृत्या राजा की ओर बढ़ी, परंतु राजा नतमस्तक खड़े रहे। तभी भगवान श्रीहरि विष्णु का सुदर्शन चक्र प्रकट हुआ और कृत्या का संहार कर दिया। अब चक्र दुर्वासा की ओर बढ़ा। भयभीत होकर ऋषि ब्रह्मा, शिव और फिर नारद के पास गए, पर किसी ने सहायता नहीं की।


भगवान विष्णु की शरण में भी समाधान नहीं मिला

अंत में ऋषि दुर्वासा क्षीरसागर पहुँचे और भगवान विष्णु से प्राणरक्षा की प्रार्थना की। परंतु भगवान ने कहा,

"मैं अपने भक्तों के अधीन हूं। उनके द्वारा किए गए अपमान की क्षमा केवल वही कर सकते हैं।"

भगवान ने स्पष्ट किया कि अभयदान उसी से माँगना होगा जिससे अपराध हुआ है—राजा अंबरीष


एक साल तक प्रतीक्षा: सच्चे भक्त का धैर्य

उधर राजा अंबरीष द्वार पर एक साल तक दुर्वासा ऋषि की प्रतीक्षा में खड़े रहे, बिना कुछ खाए-पिए। जब ऋषि लौटे तो वह नतमस्तक होकर उनके चरणों में गिर पड़े। उन्होंने क्षमा याचना की और प्राण रक्षा की गुहार लगाई।

राजा ने उन्हें उठाया और स्नेहपूर्वक गले लगाया। फिर सुदर्शन से कहा:

"यदि मैंने सच्चे हृदय से भगवान नारायण की सेवा की हो, तो हे सुदर्शन, आप शांत हो जाइए और हमारे अतिथि ऋषिवर को अभयदान दीजिए।"

राजा के वचन सत्य और निष्कलंक भक्ति से युक्त थे। सुदर्शन तुरंत शांत हो गया।


निष्कर्ष: सच्चा भक्त भगवान से भी बड़ा होता है

इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि भगवान स्वयं भी अपने भक्तों के अधीन रहते हैं। जो भगवान पर पूर्ण विश्वास करता है, भगवान उसकी रक्षा स्वयं करते हैं। राजा अंबरीष की भक्ति, श्रद्धा, सहनशीलता और क्षमाशीलता हम सभी के लिए आदर्श है।


📿 एकादशी केवल उपवास नहीं, आत्मा का जागरण है। और जब उसमें भक्तिपूर्वक समर्पण हो, तो भगवान स्वयं उसकी रक्षा हेतु प्रकट होते हैं।


🪔 जय श्री हरि! जय एकादशी व्रत! जय भक्तराज अंबरीष!


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